Natasha

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राजा की रानी

मठ में लौटकर देखा कि इस बीच सभी लोग जाकर दैनिक कामों में लग गये हैं। उस वक्त झल्लरी की आवाज से व्यस्त होकर वृथा ही जल्दी मचाई थी। मालूम हुआ कि वह मंगल-आरती नहीं थी सिर्फ ठाकुरजी की निद्रा भंग करने का बाजा था। यह उन्हें ही सुहाता है।


हम दोनों को अनेकों ने देखा, पर किसी के भी देखने में कुतूहल नहीं था। कम-उम्र होने के कारण सिर्फ पद्मा एक बार मुस्कराई और फिर मुँह नीचा कर लिया। वह ठाकुरजी की माला गूँथती है। उसके पास डलिया रखकर कमललता ने सस्नेह कौतुक से तर्जन करके कहा, “हँसी क्यों जलमुँही?”

किन्तु उसने मुँह ऊपर नहीं उठाया। कमललता ने ठाकुरजी के कमरे में प्रवेश किया, और मैं भी अपने कमरे में दाखिल हुआ।

स्नान और आहार यथारीति और यथासमय सम्पन्न हुआ। शाम की गाड़ी से मेरे जाने की बात थी। वैष्णवी को खोजने गया तो देखा कि वह ठाकुरजी के कमरे में है और उन्हें सजा रही है। मुझे देखते ही बोली, “नये गुसाईं, यदि आए हो तो कुछ मेरी सहायता भी करो। पद्मा सिरदर्द लेकर पड़ी है और लक्ष्मी-सरस्वती दोनों बहिनों को एकाएक बुखार आ गया है, क्या होगा कुछ समझ में नहीं आता। वासन्ती रंग के इन दो कपड़ों में चुन्नट डाल दो न गुसाईं।”

अतएव ठाकुर के कपड़ों में चुन्नट डालने बैठ गया। उस दिन जाना न हो सका। दूसरे दिन भी नहीं और उसके बाद वाले दिन भी नहीं। मैं बड़े सबेरे वैष्णवी के फूल तोड़ने का साथी बन गया। प्रभात में, मधयाह्न में, संध्यान को-कुछ-कुछ काम वह मुझसे करा ही लेती है। इसी प्रकार स्वप्न की तरह दिन कटने लगे। सेवा में, सहृदयता में, आनन्द में, आराधना में, फूलों में, गन्ध में, कीर्तन में, पक्षियों के गान में- कहीं भी कोई छिद्र नहीं, फिर भी सन्दिन्ध मन बीच-बीच में सजग हो भर्त्सना कर उठता है कि यह क्या खिलावाड़ कर रहे हो? बाहर के सारे सम्बन्ध तोड़कर इन थोड़े से निर्जीव खिलौनों के पीछे यह कैसा पागलपन कर रहे हो? इतनी बड़ी आत्मवंचना में मनुष्य जीवित कैसे रहता है? फिर भी यह अच्छा लगता है, जाऊँ-जाऊँ करके भी पैर नहीं बढ़ा पाता। इस तरफ मलेरिया कम है, फिर भी इस समय अनेक लोग ज्वरग्रस्त हो रहे हैं। गौहर सिर्फ एक दिन आया था, फिर नहीं आया। उसकी खोज-खबर लेने का समय भी नहीं निकाल पाता! यह मेरी दशा अच्छी हुई!

सहसा मन भय और धिक्कार से भर गया- यह मैं कर क्या रहा हूँ? संगति-दोष से क्या एक दिन यह सब सत्य मान बैठूँगा? स्थिर किया, अब नहीं, चाहे कुछ भी क्यों न हो, कल यह जगह छोड़कर मुझे भागना ही पड़ेगा।

हर रोज रात के अन्त में वैष्णवी आकर जगा देती है। प्रभाती के स्वर में वैष्णव कवियों का नींद उड़ा देने वाला वह गीत भक्ति और प्रेम का कितना सकरुण आवेदन होता है! हठात् उत्तर नहीं देता, कान लगाकर सुनता रहता हूँ। ऑंखों के कोनों में ऑंसू आ जाना चाहते हैं। मसहरी उठाकर जब वह खिड़की और दरवाजा खोल देती है तब नाराज होकर उठ बैठता हूँ, और मुँह धो कपड़े बदलकर साथ चल देता हूँ।

कई दिनों की आदत की वजह से आज अपने आप ही नींद खुल गयी। कमरे में अन्धकार है। एक बार ऐसा लगा कि रात अभी खत्म नहीं हुई है, परन्तु फिर सन्देह हुआ। बिछौना छोड़कर बाहर आया- देखता हूँ कि रात कहाँ है, सबेरा हो गया है। किसी के खबर देते ही कमललता आकर खड़ी हो गयी। उसका ऐसा अस्नात प्रस्तुत चेहरा इसके पहले नहीं देखा था।

डर से पूछा, “तुम्हारी तबियत क्या अच्छी नहीं है?”

उसने म्लान हँसी हँसकर कहा, “गुसाईं, आज तुम जीत गये।”

“बताओ, कैसे?”

“तबियत आज वैसी अच्छी नहीं, वक्त पर नहीं उठ सकी।”

“तो आज फूल तोड़ने कौन गया?”

ऑंगन के एक ओर एक अधमरे तगर के पेड़ में कुछ थोड़े से फूल लगे थे, उन्हीं को दिखाकर बोली, “इस वक्त तो किसी तरह इन्हीं से काम चला जायेगा।”

“पर ठाकुर के गले की माला?”

“माला आज न पहना सकूँगी।”

सुनकर मन न जाने कैसा हो गया- उन्हीं निर्जीव खिलौनों के लिए! कहा, “नहाकर मैं तोड़ लाता हूँ।”

“तो जाओ, पर इतने सबेरे नहा नहीं सकोगे। बीमार पड़ जाओगे।”

“बड़े गुसाईंजी नहीं दिखाई देते?”

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